जो लड़ता है वो ही जीतता है : आनंद कुमार

पिछले तीन दशकों में शिक्षा के क्षेत्र को व्यवसाय बनाने में माफियाओं का बड़ा हाथ रहा है। तमाम तरह के कोर्स में लाखों करोड़ो खर्च होना अब कोई बड़ी बात नही रह गई जिससे गरीब व मध्यमवर्ग परिवारों की दूर तक हिम्मत नही पड़ती कि अपने बच्चों की एडमिशन ऐसे कॉलेजों में करवाएं। आज इस व्यवसाय में देश-विदेश की बड़ी कंपनी आ चुकी है। जितना बड़ा कॉलेज या यूनिवर्सिटी उतनी ही ज्यादा फीस और ज्यादातर कंपनी जब कैंपस हायरिगं करती है तो पहले नामी यूनिवर्सिटी के बच्चों को मौका देती हैं। लेकिन कहते है कि ‘कलयुग में जितना पाप बड़ा है उतना पुण्य भी’। ‘सुपर 30’ के संस्थापक आनंद कुमार ने शिक्षा के एहसास को जिंदा रखते हुए पिछले दिनों तीन दशकों से गरीब व अहसहाय बच्चों को पढाकर उन्हें बुलंदियों पर पहुंचा रहे हैं। हाल ही में इन पर बनी फिल्म सिनेमाघरों में चल रही हैं। आनंद कुमार से योगेश कुमार सोनी की बातचीत के मुख्य अंश…
आपके जीवन की कुछ अहम घटना बताइए।
जब 1994 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में एडमिशन की चिठ्ठी पिताजी लेकर आए थे तो ऐसा लगा कि जग जीत लिया और दुनिया का सबसे खुशनसीब इंसान मैं ही हूं। पिताजी ने फीस के लिए अपना सब कुछ बेच दिया था लेकिन बावजूद इसके हमारे पास पूरे पैसे नही हो पाए थे। मेरे पूरे परिवार के अथक प्रयास से भी मैं मंजिल तक नही पहुंच सका। इसके अलावा इस गम में मेरे पिताजी भी चल बसे थे। इसके बाद मैं जिंदगी के बहुत बड़े बुरे दौर से गुजरा। खाने तक के पैसे भी नही थे। पिताजी के गुजरने के बाद जिंदगी पूरी तरह बदल चुकी थी। मैने साइकिल पर पापड़ बेचकर गुजर बसर किया था। मेरी माता जी व मेरा भाई पापड़ बनाता था और मैं गली-गली बेचता था।
फिर कैसे दोबारा शिक्षा के क्षेत्र में आए।
कुछ समय बीता व एक दिन अचानक गाड़ी से मेरी साइकिल टकरा गई और मेरे सारे पापड़ भी गिर गए थे। वो एक निजी संस्थान के मालिक थे और उन्होनें मेरे बारे में सुन रखा था। फिर उन्होनें मुझे अपने यहां पढ़ाने का मौका दिया। कुछ समय तक सब सही चलता रहा लेकिन जब उन्होनें यह एहसास दिलाया कि राजा का बेटा राजा ही होगा तब मेरे मन में विचार आया कि गरीब तो और गरीब हो जाएगा व फासला लगातार बढ़ता रहेगा। इसके बाद 2002 में मैंने सुपर 30 प्रोग्राम की शुरुआत की, जहां केवल गरीब बच्चों को IIT-JEE की मुफ्त कोचिंग देने लगा।
फिल्म में शुरुवात में जिन 30 बच्चों को पढ़ाया था उनको पढ़ाने से लेकर और पास कराने तक का सफर बहुत कठिन दिखाया है। क्या था पूरा मामला।
नौकरी छोड़ने के बाद जितना पैसा था और बीते समय में कमाया था उसके आधार पर लग रहा था कि कुछ समय निकल जाएगा और बाकी पैसे की व्यवस्था भी समय के साथ हो जाएगी। चूंकि प्रारंभिकता में जितने भी बच्चे मेरे पास आए थे वो भी मेरी तरह बेहद निर्धन थे। उनके पास किराए व खाने तक के पैसे नही थे औऱ मेरे पास जितना जमा पूंजी के अलावा घर की जितनी भी चीजें थी सब बेच दी थी लेकिन तब भी पैसा समय से पहले ही खत्म हो गया था। लेकिन उनके हौसले बेहद बुलंद थे। हम सभी लोग कई दिनों तक भूखे तक भी रहते थे लेकिन कुछ बनने या बनाने की चाह ने हमसे यह सफर तय कराया। इसके साथ ही हमें उस संस्थान के मालिक व एक मंत्री जी ने बहुत परेशान किया। उस वर्ष में हर पल चुनौती सामने आती थी। कई बार कदम डगमगाए लेकिन हौसला कभी नही टूटा। जिसका सजीव उदाहरण हमारे सामने निकल आया, मेरे पहले बैच के सभी 30 बच्चे पास हुए थे।
आपके जीवन पर आधारित फिल्म सुपर 30 सिनेमाघरों में चल रही है। क्या आपको लगता इससे आप जैसे लोगों की संख्या बढ़ेगी या शिक्षा के प्रति लोगों का नजरिया बदलेगा।
जो लड़ा नही वो जीता नही। भगवान जिंदगी में हरेक को कभी न कभी ऐसा मौका देता है कि वो अपने साथ दूसरों की भी जिंदगी बदल दे। अब कुछ लोगों ने देश में शिक्षा को लेकर ऐसा माहौल बना रखा है कि जिसके पास पैसा है वो ही कुछ बनेगा। प्रतिभा की कोई कदर नही है। यही कारण है कि देश में इतना अंतराल आ चुका कि गरीब कुंठित रहने लगा। वो अपने बच्चे में अफसर बनने का सपना भी नही देखता क्योंकि उसके पास इतना पैसा ही नही होता। इसलिए गरीब हो या अमीर सबको समान मौका मिलना चाहिए। इसके अलावा एक अहम बात यह भी कहना चाहूगां कि कुछ शिक्षक गरीब बच्चों को मुफ्त में या कम पैसे देकर पढ़ाए जिससे उनको भी आगे बढ़ने का मौका मिले।
सुनने में आया है अब दिल्ली के सरकारी स्कूलों में भी पढ़ाएगें।
जी बिल्कुल सही सुना है। दिल्ली सरकार ने इस विषय को लेकर मुझसे आग्रह किया है जिस पर मैंने हां कर दी। मै हर महीने दिल्ली के सरकारी स्कूलों में कक्षा 11वीं और 12वीं के विद्यार्थियों की क्लास लिया करुंगा।