ईद सिर्फ ख़ुशी का नहीं बल्कि प्यार के पैगाम का दिन

ईद दो अक्षरों से बना सिर्फ एक शब्द भर नहीं है बल्कि इसमें पूरे मानव समाज का प्रेम समाया हुआ है। ईद के शाब्दिक मायने ख़ुशी के है। लेकिन इस ख़ुशी को मनाने की कुछ शर्ते भी है। इन शर्तों को पूरा किये बिना ईद के कोई मायने नहीं है। ईद मनाने के लिए तन-मन-धन का बलिदान देना होता है।

दरअसल ईद की शुरुआत रमजान माह से शुरू हो जाती है। इसमें एक माह के कड़े, मशक्कत भरे रोजे (उपवास ) रखने होते है। रोजा भी सिर्फ दिन भर भूखा प्यासा रहने का नाम नहीं है बल्कि जिस्म के साथ साथ आपकी सोच भी पाक रहनी चाहिए। सहर होने से पहले अर्थात सूरज निकले से पहले जो कुछ भी ग्रहण कर सकते है उसे ग्रहण करने के बाद अपनी जुबान को, तलब को प्यास को भूख को, निगाह को, हाथों को, पैरों को, हँसी को, गुस्से को और विचारों को पूरे दिन काबू रखना होता है।

सहरी करने के तुरंत बाद तहज्जुद की नमाज का एहतमाम करना होता है। सहरी के वक़्त के तुरंत बाद फजिर की नमाज। तथा जोहर और असिर की नमाज पढ़ते हुए तब कहीं मगरिब की नमाज के वक़्त रोजा इफ्तार करना होता है। सिर्फ इतना ही नहीं इसा की नमाज के तुरंत बाद 20 रकात अतरिक्त नमाजे तराबी अदा करनी होती है। यह प्रक्रिया पूरे दिन और पूरे माहे रमजान चलती रहती है। इस बीच कुछ विशेष रातों का भी एहतमाम किया जाता है। इन रातों को सबे कद्र कहते है। इन रातों में मुस्लिम सारी रात जागकर इबादत करते है। इनमे कुछ मुस्लिम रमजान माह के आखिरी असरे (पखवाड़े ) में मस्जिदों में ही कयाम करते है ताकि दुनिया की मोहब्बत ख़त्म कर सिर्फ खालिस अल्लाह की इबादत में वक़्त गुजरे।

इस बीच हर मुस्लिम व्यक्ति पर एक और जिम्मेदारी होती है कि वह यह भी पता करे कि उसके अजीज अकारिब (रिश्तेदारों) में कोई गरीब तो नहीं है। कोई एसा तो नहीं है जिसने शर्म का चोला ओढ़ रखा हो और जरूरत मंद हो। वह और उसका परिवार ईद कैसे मनाएंगा। इसका भी ख्याल रखे। यदि अपने रिश्तेदारों में सभी हैसियत वाले हो तो अपने मोहल्ले पड़ोस में देखे। यदि वहां भी कोई न हो तो किसी भी जरूरत मंद की मदद करे। यदि आपकी जानकारी में कोई जरूरतमंद ईद नहीं मना पा रहा है अर्थात उसके बच्चे नए कपडे नहीं पहन सक रहे है तो तुम्हारा ईद मनाना व्यर्थ है।

इस्लाम में यह एक एसा समाजवाद है जहां कोई छोटा बड़ा नहीं रहता। तभी तो कहते है कि एक ही सफ में खड़े हो गए महमूद व अयाज, न कोई बंदा रहा और ना कोई बंदा नवाज।  इसलिए सभी का ख्याल रखते हुए गरीब की भूख का एहसास अमीरों को भी हो इस एहसास के साथ एक माह भूख और प्यास की शिद्दत बर्दाश्त करते हुए ईद मनाने का हुक्म है।

ईद की नमाज से पहले अपनी और अपने परिवार व मातहतों की जान का सदका अदा करे।  इस ईद को ईद उल फ़ित्र कहते है क्योंकि इंसान अपना और अपने प्रिय जनों का फ़ित्र अदा करने के साथ अपने माल की जकात भी अदा करे। और बिना किसी घमंड के इन्तिसारी के साथ रब का शुक्रिया ईदगाह में नमाज पढ़ कर अदा करे। अपने राब से अपने गुनाहों की माफ़ी मांगे। पूरे मानव समाज की भलाई की दुआएं मांगे और गिले शिकवे भुला कर सभी से ईद मिले और मुबारकबाद पेश करें।

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